भैया-दूज का सच्चा अर्थ – जब ‘मैं’ मिटे और ‘हम’ जागे

भैया-दूज का सच्चा अर्थ – जब ‘मैं’ मिटे और ‘हम’ जागे

Punjab media news : आज भैया-दूज है — भाई और बहन के प्रेम का प्रतीक। हर त्योहार एक विशेष संदेश देने आता है। भाई और बहन जो एक ही माँ-बाप से जन्मे हैं, उनका यह रिश्ता संसार की एक व्यवस्था है। प्राचीन इतिहास में जब जंगलों में रहते थे तब कोई सम्बन्ध नहीं होते थे – न माँ-बाप, न पति-पत्नी, संबंधों का कोई नाम था।जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ी और जीवन मुश्किल होने लगा, वैसे-वैसे व्यवस्थाएँ बनीं — माँ-बाप, भाई-बहन, पति-पत्नी — ताकि जीवन का खेल ठीक से खेला जा सके।

जीवन सच में एक खेल है। जैसे बच्चे के लिए खिलौना लाते हैं, वैसे ही हम भी यहाँ खेलने आए हैं। अगर खेलने की इच्छा न होती, तो इस लोक में आते ही नहीं। जो चाहा, उसी हिसाब से ये खेल बना। फिर जब एक ही माँ से कई बच्चे हुए तो कहा गया — ये भाई है, ये बहन है। यहीं से प्राथमिक सम्बन्ध बने — एक ही घर के अंदर, एक पुरुष, एक स्त्री, और उनसे जन्मे बच्चे। धीरे-धीरे व्यवस्था आगे बढ़ी। जैसे गाड़ियों के लिए सिग्नल बने ताकि एक्सीडेंट न हो, वैसे ही जीवन में नियम बने ताकि समाज संभले। शादी, परिवार, रिश्ते — ये सब व्यवस्था के हिस्से हैं। और जब ये बढ़ते गए, तो सुरक्षा की जरूरत भी बढ़ी। पहले घर में भाई बहन की रक्षा करता था, फिर गाँव के पंच हुए, फिर सरकारें, पुलिस-फोर्स, आर्मी बने।

भैया-दूज और रक्षाबंधन जैसे पर्व इसलिए आए कि भाई-बहन का रिश्ता कभी फीका न पड़े। साल में एक बार मिलना-जुलना हो, ताकि बचपन का अपनापन, वो हँसी-मज़ाक याद रहे। पहले बहन घर में रहती थी, भाई बाहर, तो रक्षा भाई करता था। अब वक्त बदल गया है — अब कई बार भाई को भी बहन से रक्षा मिलती है। पर असली बात ये है कि ये सब एक खेल है, एक व्यवस्था।

समय के साथ सब ही रिश्तों में ‘मैं’ आ गई और यहीं से दूरियां शुरू हो गयी । भाई कहने लगा — तू मेरी सुना कर। बहन कहने लगी — तू मेरी सुना कर। जो धागा हाथ पर बाँधा जाता था, वो हमने एक-दूसरे के गले में बाँध दिया। अब प्रेम का बंधन धीरे-धीरे तानाशाही में बदल गया। जब दोनों ओर ‘मैं’ आ गई, तो प्रेम कम होता गया।

पहले सहनशीलता थी —रिश्ते उम्र-भर निभते थे। आज ‘मैं’ बढ़ गई है, तो रिश्ते कमजोर हो रहे हैं। जब ‘मैं’ हावी होती है, तब रिश्ता व्यापार बन जाता है — मैं ऐसा चाहती हूँ तो तू ऐसा कर, मैं वैसा चाहता हूँ तो तू वैसा कर। और जब रिश्ता व्यापार बनता है, तो प्यार घट जाता है।

भैया-दूज और राखी अब ज़्यादातर औपचारिकता बन गए हैं। पहले तड़प होती थी मिलने की — आज वो भाव कम है। पर अगर हमें इन रिश्तों को बचाना है, तो हमें अपनी ‘मैं’ मिटानी होगी। प्रेम ‘मैं’ में नहीं, त्याग में है। हम सब एक ही से आये हैं और एक ही हैं। ये याद रहे तो ‘मेरा’ और ‘तेरा’ खत्म हो जाएगा।] जब ‘मैं’ मिटती है, तो प्रेम खिलता है। वही प्रेम, जो रक्षा भी करता है और मुक्ति भी देता है।

तो इस भैया-दूज पर यही याद रखो — रिश्ता वही टिकता है जिसमें ‘मैं’ नहीं, हम होता है। तभी भाई-बहन का प्रेम अमर रहेगा, और ये धागा सिर्फ़ हाथ पर नहीं, दिल पर बँधा रहेगा।

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