करवा चौथ के व्रत का क्या महत्व है? व्रत तो कई होते हैं, पर सच्चा व्रत तो एक ही है – प्रेम। कहा भी गया है —“ऐसा कठिन व्रत लीजियो, ले न सके कोए, घड़ी इक बिसरूँ परमात्मा को तो ब्रह्महत्या मोहे होए।”
ऐसा क्यों कहा गया? क्योंकि भगवान प्रेम हैं, ईश्वर प्रेम हैं। पति में भी वही परमात्मा हैं और पत्नी में भी वही परमात्मा हैं। हम जिस आत्मा, चेतना या ऊर्जा को महसूस करते हैं, वह सब परमात्मा से ही आई है। चाहे संसार में कोई भी जैसा दिखे, हर एक के भीतर वही आत्मा, वही परमात्मा है। पति के लिए पत्नी परमात्मा है और पत्नी के लिए पति परमात्मा। इसलिए कहा गया — व्रत तो एक ही है, प्रेम! अगर प्रेम नहीं, तो व्रत का अर्थ ही क्या रह गया?
पहले की दादियाँ-नानियाँ दिल से व्रत रखती थीं। याद करो — अगर पति देर से आता था, तो भूखे-प्यासे बैठी रहती थीं।
जैसे ही पति दिखा, तो बोलीं — “अब लाओ, खिलाओ।” पहला निवाला पति अपने हाथ से खिलाता था। वो सच्चा करवा चौथ था। अब तो बस एक दिन “करवा चौथ” मनाया जाता है, पर पहले तो कई बार रोज़ ही करवा चौथ हो जाता था — जब पत्नी कहती थी, “पति नहीं आया, तो मैं नहीं खाऊँगी।” वो समय प्रेम और समर्पण का था।
अब व्यवस्था बदल गई है। पहले यह व्रत प्यार और इंतज़ार में होता था, आज प्यार में वह गहराई नहीं रही। परंपरा अब निभाई जाती है, पर भावना कहीं खो गई है। पहले स्त्रियाँ कहती थीं — “मेरा पति ही मेरा परमेश्वर है।” आज भी कोई-कोई ऐसा मानता है, पर क्या सच्चा प्रेम बाकी है? जब प्रेम ही नहीं, तो फिर व्रत कैसा? पुरानी सासें, दादियाँ, नानियाँ अब भी कहती हैं कि व्रत रखो, पर परंपरा तभी जीवित रहेगी जब हम पुरानी भावना को फिर से अपनाएँगे।
अब स्त्रियाँ घर से बाहर काम करती हैं, पति-पत्नी दोनों ही ज़िम्मेदारियाँ बाँट रहे हैं। जीवन की रफ्तार बदल गई है। पर प्रेम वही रहना चाहिए — जो इंतज़ार करता था, जो अपने प्रिय में परमात्मा को देखता था। कबीर ने कहा — “परमात्मा प्रेम है।”
इसलिए असली करवा चौथ वही है, जहाँ उपवास सिर्फ़ शरीर का नहीं, बल्कि अहंकार का भी हो। जहाँ प्रेम ही पूजा बने, और पति-पत्नी दोनों एक-दूसरे में भगवान को देखें।
*करवा चौथ का सार यही है — प्रेम में ही परमात्मा है, और प्रेम ही सबसे बड़ा व्रत है।*

GIPHY App Key not set. Please check settings