जालंधर (ब्यूरो)- आज महाशिवरात्रि है। शिवभक्त व्रत पूजन करके आज भगवान शिव की आराधना करेंगे। इस व्रत में चारों पहर में पूजन किया जाता है। महाशिवरात्रि वह पावन दिन है, जब शिवभक्त अपने आराध्य की पूजा उपासना और व्रत करके भोलेनाथ से आशीर्वाद प्राप्त कर मन चाह वर प्राप्त करते हैं। पुराणों में ऐसी कथा का वर्णन भी है कि पूर्वजन्म में में कुबेर ने अनजाने में ही महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव की उपासना की ली थी। जिसके फल स्वरूप उन्हें अलग जन्म में शिव भक्ति प्राप्ति हुई और वह देवताओं के कोषाध्यक्ष बन गए।
भगवान शिव और देवी पार्वती का विवाह रात्रि के समय के ही हुआ था, इसलिए उत्तर भारती पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की चतुर्दशी तिथि मध्य रात्रि यानि निशिथ काल में होती है। उसी दिन को महाशिवरात्रि का दिन माना जाता है।
दोपहर 2.40 बजे से चतुर्दशी तिथि लगेगी
11 मार्च को दोपहर 2.40 बजे से चतुर्दशी तिथि लगेगी। जो मध्यरात्रि में भी रहेगी। 12 मार्च को दोपहर 3.03 बजे तिथि समाप्त हो जाएगी। इसलिए 11 मार्च को ही शिवरात्रि मनाई जाएगी। इसके साथ ही इस दिन का आरंभ शिव योग में हो रहा है। जिसे शिव उपासना के लिए सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। शिवयोग में गुरुमंत्र और पूजन का संकल्प लेना अच्छा रहेगा। लेकिन शिवयोग 11 मार्च को सुबह 9.24 बजे तक समाप्त हो जाएगा और इसके बाद सिद्ध योग आरंभ होगा। सिद्ध योग में जप, मंत्र और साधना करने से विशेष फल की प्राप्ति होती है। इसलिए सिद्ध योग में मध्यरात्रि में शिव मंत्रों का जाप करना चाहिए।
महाशिवरात्रि व्रत कथा
प्राचीन समय में एक नृशंस बहेलिया था, जो नित्य प्रति अनगिनत निरपराध जीवों को मारकर अपने परिवार का पालन−पोषण करता था। वह एक बार सेठ को रुपया देने में असमर्थ होने के कारण शिव मठ में बंदी बना। वह दिन फाल्गुन त्रयोदशी का था इसलिए मंदिर में अनेक कथाएं हो रही थीं। उस व्याध ने उन कथाओं को सुनते हुए शिवरात्रि व्रत की भी कथा सुनी। सेठ ने उसे एक दिन की मोहलत देकर छोड़ दिया। दूसरे दिन चतुर्दशी को वह बहेलिया पूर्व की तरह वन में शिकार के लिए चला गया।
पूरे जंगल में विचरण करने पर भी जब उसे कोई नहीं मिला तो वह परेशान होकर एक तालाब के किनारे रहने लगा। उसी स्थान पर एक बेल के वृक्ष के नीचे शिवलिंग स्थापित था। बहेलिया ने उसी वृक्ष की शाखा पर चढ़कर अपनी आवासल्ली बनाने के लिए बेलपत्रों को तोड़ते हुए शिवलिंग को आच्छादित कर दिया। दिन भर की भूख से व्याकुल उस बहेलिये का एक प्रकार से शिवरात्रि व्रत पूरा हो गया। कुछ रात बीत जाने पर एक गर्भित हिरणी उधर कुलाचे भरती आई। उसे देखते ही बहेलिया ने निशाना लगाया। झिझकती, भयाकुल हिरणी दीन वाणि में बोली कि हे व्याध! मैं अभी गर्भिणी हूं, प्रसव बेला भी समीप है इसलिए इस समय मुझे मत मारो। प्रजनन क्रिया के बाद शीघ्र ही आ जाऊंगी।
बहेलिया उसकी बातों को मान गया। थोड़ी रात बीत जाने पर एक दूसरी हिरणी उस स्थान पर आई। पुनः बहेलिया के निशाना साधते ही उस हिरणी ने भी निवेदन किया कि मैं ऋतु क्रिया से निवृत्ति हूं इसलिए मुझे पति समागम करने दीजिए, मारिए नहीं। मैं पति से मिलने के पश्चात स्वयं तुम्हारे पास आऊंगी। बहेलिया ने उसकी बात भी स्वीकार कर ली। रात्रि को तृतीया बेला में एक तीसरी हिरणी छोटे−छोटे छानों को लिए उसी जलाशय में पानी पीने आई। बहेलिया ने उसको भी देखकर धनुष बाण उठा लिया, तब वह हिरणी भी कातर स्वर में बोली कि हे व्याध! मैं इन छोनों को अपने हिरण के संरक्षण में कर आऊं तो तुम मुझे मार डालना। बहेलिया ने दीन वचनों से प्रभावित होकर उसे भी छोड़ दिया।
प्रातः काल के समय एक मांसल बलवान हिरण उसी सरोवर पर आया। बहेलिये ने पुनः अपने स्वभावनुसार उसका शिकार करना चाहा। यह क्रिया देखते ही हिरण व्याध से प्रार्थना करने लगा। हे व्याधराज! मुझसे पूर्व आने वाली तीन हिरणियों को यदि तुमने मारा है तो मुझे भी मारिए अन्यथा उन पर तरस खाना बेकार जाएगा। जब वे तुम्हारे द्वारा छोड़ दी गई हैं तो मुझे उनसे मिलकर आने पर मारना। इस प्रकार बहेलिया ने उसे भी छोड़ दिया।