किसान कभी भी अपने जज्बातों से नहीं नहीं घबराया तो फिर क्यों आज वह अपना हक छोड़े, क्यों न वो लड़े अपनी मां के लिए, वो अपने लिए नहीं अपने देशवासियों के लिए बैठे हैं, दिल्ली की सरहद पर न ही उनको सर्दी, गर्मी , बारिश की परवाह होती है। उन किसानों के हौसले इतने बुलंद हैं कि रास्ते में आई कोई रुकावट भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती।
अरे चल आए हैं उसके कदम डिगाने को
करना चाहते हैं तबाह इसके ठिकाने को
किसानों ने हारना तो कभी सीखा ही नहीं। जब सस्ती हो चुकी फसल को लौटता है रास्ते में उड़ेल कर, गिरते भाव क्या इनकी हिम्मत कभी तोड़ पाए तो फिर क्यों वह अपना हक छोड़े।
1970 के दशक के उत्तरार्ध से पहले भारत अपनी आवश्यकताओं
को पूरा करने के लिए पर्याप्त खाद्यान्न का उत्पादन करने में सक्षम नहीं था। हम विदेशों से (मुख्य रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका से) बड़ी मात्रा में खाद्यान्न आयात करते थे। पर कुछ समय के लिए अच्छा रहा लेकिन बाद में (यूएसए) ने हमें व्यापार पर ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया। उन्होंने खाद्यान्न की आपूर्ति पूरी तरह से बंद करने की धमकी भी दी। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने चुनौती स्वीकार की और ‘जय जवान जय किसानÓ का नारा दिया और कुछ कठोर उपाय किए, जिसके परिणामस्वरूप ‘हरित क्राांतिÓ आई और हम आत्मनिर्भर हो गए। भारत ने तब से कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। हमारे किसानों ने कभी हमें निराश नहीं किया, भले ही वे कई समस्याओं का सामना कर रहें हों।
भारतीय अर्थव्यवस्था में किसानों का योगदान लगभग 17प्रतिशत है। उसके बाद भी वह गरीबी का जीवन जीते रहे। इसके कई कारण हैं। 2016-17 में भारतीय कृषि निर्यात लगभग 33 बिलियन अमेरिकी डॉलर था। यह बहुत ही संवेदनशील विषय है जिसे बहुत सावधानी से संभाला जाना चाहिए। लेकिन क्या हम इसे ठीक से संभाल रहे हैं? यह एक मिलिन डॉलर का सवाल है। चूंकि समस्या जटिल है, इसलिए समाधान भी सीधा नहीं है, लेकिन अगर हम वास्तव में अपने देश को उथल-पुथल में जाने से बचाना चाहते हैं तो हमें इस समस्या का हल करना होगा। जैसे-जैसे समस्या को बढऩे में समय लगा है, उसी तरह से निपटने में भी समय लगेगा। तो, यह उचित समय है, हमें अपने हक के लिए लडऩा पड़ेगा नहीं तो हम अपने ही देश में गुलाम जैसे हो जाएंगे। ‘किसानÓ को देश का सैनिक माना जाता है। क्योंकि अगर देश की सीमा पर ‘सैनिकÓ नहीं होंगे तो हमारे देश के दुश्मन हमारे देश के ऊपर हमला कर सकते हैं, इसी तरह अगर किसान नहीं होंगे तो खेती नहीं हो सकती और खेती नहीं होगी तो अपने देश का हर एक नागरिक भूखा रह जाएगा, फिर चाहे वो सीमा पर लड़ रहा जवान ही क्यों न हो।
‘वो दिन की न बात करें न रातों की परवाह,
जहां कपकपाती ठंड भी बने उसके तक की गवाह,
कभी भी ना डरा इन अंधेरी रातों से,
और न ही कभी ठिठुरता रहा वह बेदर्द ठंडी रातों से।
मान्वी