Punjab media news : सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को अपने एक आदेश में कहा कि बेवफाई के आरोप वाले वैवाहिक विवादों में नाबालिग बच्चे की डीएनए टेस्टिंग को बेवफाई स्थापित करने के शॉर्टकट के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इससे निजता के अधिकार में हस्तक्षेप हो सकता है और मानसिक आघात भी पहुंच सकता है.
न्यायमूर्ति वी. रामासुब्रमण्यम और न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना की बेंच ने कहा, ‘ऐसे मामलों में अदालत के लिए यांत्रिक रूप से बच्चे की डीएनए टेस्टिंग का आदेश देना न्यायोचित नहीं होगा, जिसमें बच्चा प्रत्यक्ष रूप से मुद्दा नहीं है.’ कोर्ट ने कहा कि सिर्फ इसलिए कि किसी एक पक्ष ने पितृत्व के तथ्य पर विवाद खड़ा किया है, अदालत को विवाद का समाधान करने के लिए डीएनए या किसी ऐसे अन्य टेस्ट का आदेश नहीं दे देना चाहिए. दोनों पक्षों को पितृत्व के तथ्य को साबित करने या खारिज करने के लिए साक्ष्य प्रस्तुत करने के निर्देश दिए जाने चाहिए.
पक्षों को पितृत्व के तथ्य को साबित करने या खारिज करने के लिए साक्ष्य का नेतृत्व करने के लिए निर्देशित किया जाना चाहिए और केवल अगर अदालत को इस तरह के साक्ष्य के आधार पर निष्कर्ष निकालना असंभव लगता है, या इस मुद्दे में विवाद को डीएनए परीक्षण के बिना हल नहीं किया जा सकता है, तो यह निर्देश दे सकता है, अन्यथा नहीं.
बच्चे की पहचान पर गंभीर प्रभाव पड़ता है’
पीठ ने कहा, ‘इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि अवैधता के रूप में एक निष्कर्ष, अगर डीएनए परीक्षण में पता चला, तो कम से कम बच्चे पर मनोवैज्ञानिक रूप से प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा. जानना कि किसी का पिता कौन है, एक बच्चे में मानसिक आघात पैदा करता है. कोई कल्पना कर सकता है, पिता की पहचान जानने के बाद, एक युवा दिमाग पर इससे बड़ा आघात और तनाव क्या प्रभाव डालेगा.’ शीर्ष अदालत ने कहा कि पितृत्व से जुड़े सवालों का बच्चे की पहचान पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।